"नेति नेति आत्मा की गहराइयों तक जाने का मार्ग"


कभी न कभी हर इंसान के मन में यह सवाल उठता है—मैं वास्तव में कौन हूँ?”

पहली नज़र में यह सवाल बड़ा साधारण लगता है, पर अगर गहराई में उतरें तो यह सवाल जीवन का सबसे बड़ा रहस्य खोल देता है। हममें से ज़्यादातर लोग अपने आप को उन चीज़ों से जोड़ लेते हैं जो दिखाई देती हैं—मेरा शरीर, मेरी उम्र, मेरी नौकरी, मेरी उपलब्धियाँ, मेरे विचार, मेरा नाम, मेरा देश। लेकिन क्या यही असली "मैं" है?

डिब्बे का खेल: पहचान की परतें

सोचिए, आपके सामने एक डिब्बा रखा है। इस डिब्बे में आपके जीवन के सारे "पहचान पत्र" रखे गए हैं।

 एक तस्वीर, जो आपके शरीर का प्रतीक है।

 एक बैज, जो आपकी नौकरी और करियर को दिखाता है।

   एक रिपोर्ट कार्ड, जिसमें आपकी सफलताएँ और असफलताएँ दर्ज हैं।

  एक जन्मदिन कार्ड, जो आपकी उम्र की गिनती करता है।

 एक पासपोर्ट, जो आपकी राष्ट्रीयता की मुहर लगाता है।

 एक विचार का बुलबुला, जो आपके मन के निरंतर उठते-गिरते ख्यालों को दर्शाता है।

अब आप इस डिब्बे के सामने बैठकर "नेति नेति" की प्रक्रिया शुरू करते हैं।

 नेति नेति: यह नहीं, वह नहीं

सबसे पहले आप अपने शरीर की तस्वीर उठाते हैं। और कहते हैं—यह मैं नहीं हूँ।”
फिर आप नौकरी का बैज उठाते हैं—यह भी मैं नहीं हूँ।”
रिपोर्ट कार्ड?—“यह भी नहीं।”
उम्र?—“नहीं।”
राष्ट्रीयता?—“यह भी नहीं।”
विचार?—“वह भी मैं नहीं।”

एक-एक करके सारी चीज़ें डिब्बे से बाहर रख दी जाती हैं। अंत में डिब्बा खाली रह जाता है।

 अब प्रश्न उठता है: जब सब हटा दिया, तो बचा क्या?

पहली नज़र में लगता है—कुछ भी नहीं।
लेकिन ज़रा ठहरिए…

वह कौन था जिसने शरीर को "यह नहीं" कहा?
वह कौन था जिसने विचारों को देखा और कहा "यह भी नहीं"?
वह कौन है जो इस पूरी प्रक्रिया का साक्षी है?

यही है आपकी जागरूकता।
एक शुद्ध, अडोल, मौन साक्षी—जो हर समय मौजूद है। वही है आपका असली स्वरूप।

 नेति नेति: केवल नकार नहीं, खोज भी है

यह समझना ज़रूरी है कि "नेति नेति" का अर्थ केवल नकार देना नहीं है। यह साधना आपको परत-दर-परत उन झूठी पहचान से मुक्त करती है जिन्हें आपने सच मान लिया है।

·        शरीरयह समय के साथ बूढ़ा होगा, बदल जाएगा।

·        नौकरी और पहचानआज यह है, कल बदल सकती है।

·        सफलता-असफलताआती-जाती रहती है, जैसे लहरें।

·        विचारहर पल जन्म लेते हैं और मिट जाते हैं।

लेकिन इन सबके पीछे जो स्थिर है, जो कभी नहीं बदलता, वही है आपकी चेतना।
वह न समय के अधीन है, न परिस्थितियों के।

 सच्चा 'मैं': साक्षीभाव

जब आप सब नकली पहचान उतार देते हैं, तो जो बचता है, वह है—साक्षीभाव।
वह मौन दर्शक, जो सब देखता है लेकिन खुद कभी फँसता नहीं।

कल्पना कीजिए, जीवन एक नाटक है। आप अलग-अलग किरदार निभाते हैं—कभी छात्र, कभी कर्मचारी, कभी माता-पिता, कभी दोस्त। हर दृश्य बदलता है, हर भूमिका बदलती है। परंतु मंच पर खड़ा असली "अभिनेता" वही रहता है।
ठीक वैसे ही, आप शरीर, नौकरी या विचार नहीं हैं। आप वह अभिनेता हैं, वह दर्शक हैं—जो इन सबको घटित होते हुए देख रहा है।

 क्यों ज़रूरी है यह समझना?

आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में हम अपने आप को बाहरी चीज़ों में खो देते हैं।
कभी सफलता को लेकर चिंता, कभी असफलता से हताशा, कभी भविष्य की चिंता, कभी अतीत का बोझ।
लेकिन जब यह समझ पक्की हो जाती है कि मैं इन सबसे परे हूँतो एक गहरी शांति अपने भीतर उतरती है।

फिर चाहे बाहर आँधी हो या तूफ़ान, भीतर एक स्थिरता बनी रहती है।
वही स्थिरता है सच्ची आज़ादी।

 अंतिम खोज: अनंत और अटूट "मैं"

तो, असली "मैं" वह नहीं जो बदल जाए। असली "मैं" वह है जो हमेशा है—शुद्ध चेतना, शुद्ध जागरूकता।
नेति नेति हमें उसी तक ले जाता है।

याद रखिए—
आप शरीर नहीं हैं,
आप नौकरी नहीं हैं,
आप विचार नहीं हैं।

आप वही हैं जो यह सब देखता है—शांत, अडोल, अनंत।
यही है असली "आप"—एक अटूट सागर, जिसमें जीवन की सारी लहरें आती-जाती रहती हैं।

 यही है "नेति नेति" का रहस्य—यह नहीं, वह नहीं… और अंत में प्रकट होता है केवल "सच्चा मैं।"